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Thursday 29 December 2016

कच्ची धूप सा

1.
बहुत 
ढूँढने की
कोशिश करती हूँ 
अपने अंदर की टीस को
जड़ से खत्म करने की
मगर ये
कभी 
कच्ची धूप सी
बिखरी आंधियों सी
सूखी निराशाओं में
तब्दील होकर 
हमेशा मेरे अंदर मौजूद रहती है


2.

बैठा था यूँ ही मैं
तुम्हारी यादों की छाँव में
इश्क की छाँव में
जिसमें तुम थी मौजूद 
मेरे लिखे हर हर्फ़ में
हर सेहरे में 
अचानक पारे सा एक आँसू
हथेली पर आकर सिमटकर बोला
क्या इश्क का दूसरा नाम ही
आँसू होता है







Saturday 24 December 2016

टीस

बहुत
ढूँढने की
कोशिश करती हूँ
अपने अंदर की टीस
जड़ से खत्म करने की
मगर ये
कभी
कच्ची धूप सी
बिखरी आंधियों सी
सूखी निराशाओं में
तब्दील होकर
हमेशा मेरे अंदर मौजूद रहती है

Monday 19 December 2016

काजल की कालिख

नहीं मिटी तो
सिर्फ़
मेरे आँखों पर ज़मी
काजल की
वो कालिख
जिसको देखकर
तुम्हारी सख्त नज़रे
थोड़ी नरम
और
झिझकती खामोशी
मुस्कुराहट
में तब्दील हो जाती थी

Friday 16 December 2016

मिज़ाज़ ए विचार

बड़ी ही निष्ठुर हूँ मैं
जाने कैसे विचारों पर 

अंधविश्वास करती हूँ
आज के दौर की मोहब्बत
काफी बदली हुई है
और समझदार भी
महसूस होता है अक्सर कि
आज की मोहब्बत
नागफनी सी कटीली है जिसमें
रहकर मानों
संवेदनाएं जलकर राख हो चुकी हो
कभी गुज़रे वक्त में जो बंदिशें
देखभाल जताती रही
आज वे ही शायद बेड़िया बन चुकी है
आपस में कांटों सी खीझ 
निरंतर सबके मनों पर राज़ करती है
आखिर ऐसा क्या हुआ
जिसकी गहरी चुभन
दिन पे दिन विरोध और प्रतिशोध का
रूप रखती जा रही है




Thursday 15 December 2016

साल जी (दोस्त)

गुज़र रहा है हर पल, हर वक्त, हर साल। 
अजीब भी है और कश्मकश भी कि हर साल की तरह ये साल भी जा रहा और एक नया साल दस्तक दे रहा है । अरे अभी अभी की तो बात ही थी तुम्हें आये हुए और इतनी जल्दी तुम्हारा जाने का वक्त भी हो चला साल 2016 ।
 ऐसी ही कश्मकश सबको रहती होगी ना] कितनी शिकायतें, कितनी खुशियाँ, कितने ज़ज्बात दबा रखें होंगे। कितनी लड़ाई की होगी ना नये साल से कि तुम्हारी वजह से मेरा पिछला साल चला गया, कुछ दिनों तक पिछले वाले साल को मिस भी किया होगा। 
फिर धीरे धीरे इस नये साल ने तुम्हारे दिल पर अपना कब्ज़ा ज़मा लिया और अब इसके जाने का भी वक्त हो चला ये क्या अब तो साल जी आपके लिए एक गाना याद आ रहा है कि "अभी ना जाओ छोड़ के कि दिल अभी भरा नहीं" आजकल दिल ही नहीं आँखें भी भर आती है। 
  तुम्हारे जाने के डर से और सोचते है कि काश तुम बिछड़ते तो उम्मीद भी रहती तुम्हारे मिलने की मगर तुम तो जा रहे हो हमेशा हमेशा के लिए! अब तुम ही बताओ कैसे तुम्हें गुड बाय कहूँ पहले अपनी मर्ज़ी से आते हो और अपनी मर्ज़ी से चले जाते हो साल तुम्हें याद है जब तुम आये थे जनवरी की पहली तारीख को तुमसे मेरी कितनी रंजिश थी क्यूँ कि तुमसे पहले भी मेरा एक साल दोस्त चला गया और ना जाने उससे पहले वाले कितने साल (दोस्त)। 
कभी कभी लगता है कि ये कैसा संजोग है यहां साल जाते है, लोग जाते है, वक्त जाता है, उम्र जाती है, सबकुछ तो जाता ही है। बड़ी विडंबना है ये और इन्हीं विडंबनाओं में विशेषताएँ भी है। सबसे बड़ी विशेषता यही है कि जो आया है वो जायेगा ज़रूर बस कुछ का समय निश्चित है और कुछ का अनिश्चित।
 मगर हर कोई किसी ना किसी वजह से इन गुज़रे सालों को याद रखता है। अपने अपने अनुभवों के आधार पर आने जाने पर ही कितने ग्रंथ, कितनी किताबें लिखी जा चुकी है। बता रखा है कि इतना मोह मत करो। ये सच्चाई भी है और तर्क भी मगर फिर भी टिक टिक तो होती ही है ना, हम सेलिब्रेशन भी करते है और दुख भी मनाते है। 
खैर, फिर से दिल में टिक टिक हो रही है और दीवार पर लगी घड़ी की सुईयों की रफ्तार तेज़ जो इशारे में बता रही कि ये साल भी पिछले साल की तरह निकल रहा है और हम बस उसके इशारे को महसूस कर रहे मगर रोक नहीं पा रहे, ऐसे ही हम सबको भी ढँलना है इन सालों की तरह ही। 
 अलविदा 2016

तुम बस एक कल्पना हो

तुम कोई और नहीं
बस एक कल्पना हो
मेरी कल्पना और
मेरी कल्पना के साये रोज़
मेरे ख्वाबों में दस्तक देते है
तुम गुलाबी सी मुस्कुराहट लिए
मेरे सामने खड़ी हो
हवाओं सी हल्की तुम अपने
बिखरी ज़ुल्फों को
समुद्र से गहरी आँखों से हटाती फिरती
मानों वो तुम्हारे साथ खेल रही हों
तुम्हें देखकर लगता है कि
मैं तुम्हें बार बार नहीं
हज़ार बार देखूं
और तब तक देखता रहूं
जब तक मेरे
बसर-ए-ख्वाब़ की
सुबह ना हो जाए

Monday 12 December 2016

काश ! वक्त कुछ ऐसा होता

















काश ! 
वक्त कुछ ऐसा होता
थोड़ा रंग बिरंगा होता


जो चहकता
प्रेम के गीत गुनगुनाता
जिसमें तुम वास्तविक होते
भंवरे से तुम
मोहब्बत का रसपान करते

काश !
तुम मेरे काल्पनिक
किरदार ना होते
और ना ही
निराशाओं की परछाई होते
जो सिर्फ़ डराती है

अक्सर
तुम ख्वाबों में आकर
मेरे सामने पीठ घुमाकर
खड़े रहते हो
कुछ ना बोलकर सिर्फ़
खामोशी को ओड़कर रखते हो

काश !
तुम हकीकत होते
मेरी हकीकत
तुम कोई
ख्वाब नहीं
ख्याल नहीं
ना होते
मगर तुम तो सिर्फ़
मेरी कल्पना निकले

जो बेहद हसीं है
बेहद करीब है
मगर है सिर्फ़
एक ख्वाब
हसीं ख्वाब

काश !
वक्त कुछ ऐसा होता
वक्त थोड़ा रंग बिरंगा होता

Thursday 1 December 2016

अन्तर्द्वन्द

मेरे अन्दर

चलता रहता है

एक अन्तर्द्वन्द

जैसे हवा चलती है,

पानी बहता है

और साँसें चलती है

सोचता हूँ अक्सर

अगर हवा रुक जाये तो

दम घुटता है

पानी रुक जाये तो

सड़ जाता है

सांस रुक जाये

तो मौत हो जाती है

मगर मेरे अन्दर का

अन्तर्द्वन्द चलता रहता है

आखिर ये क्यूँ नहीं रुकता

कभी सवालों को लेकर

कभी मिले जवाबों को लेकर

रास्ते से गुज़रकर हर ठोकर से पूछता हूँ

कई दिन से भूखे उस गरीब की भूख से पूछता हूँ

कि मेरे अंदर का अन्तर्द्वन्द

खत्म क्यूँ नहीं होता

जब रास्तों की मंज़िल मिल जाती है

जब बेमानी से ज़रूरते पूरी हो जाती है

जब झूठ को सच समझ लिया जाता है

तो मेरे अन्दर का अन्तर्द्वन्द

शांत क्यूँ नहीं होता

आखिर क्यूँ

हमेशा खुद को

अन्तर्द्वन्द के अँधेरों में पाया

जो रोज़ हर रोज़ बढ़ता रहता है

कहीं कोई उजाला नहीं दिखता

सिर्फ़ दिखता है मेरे अंदर का

एक अन्तर्द्वन्द

प्रेम

ये कोई बंधन नहीं

और ना ही

कोई बोझ 

प्रेम तो सिर्फ़ प्रेम होता है

चाहे तुम इस पर
कितने ही शोध क्यूँ ना कर लो

इसके शोर में

इसकी खामोशी में

इसकी बौखलाहट में

भी ये खुद छुपा होता है

चाहे तुम इसको कितने ही नाम 

क्यूँ ना दे दो

चाहे कितनी ही कहानियाँ गढ़ दो

चाहे तुम इसका उपहास बना दो

मगर ये खुद आहत ना होकर

दूसरों को प्रभावित करता है

तुम सुनो मेरी बात

प्रेम में कोई खास लगाव नहीं

पर प्रेम से जरूर लगाव है

इसका कोई स्वार्थ नहीं

कोई खासा कारण नहीं

ये तो करुणा दया 

छलकाता है 

जैसे 

कोई मां ममता लुटाती हो

अक्सर सुनता आया हूँ

प्रेम किसी वजह से होता है

मगर मेरा दिल नहीं मानता

हमेशा इसकी ख़िलाफत करता है

और कहता है

प्रेम सिर्फ़ प्रेम होता है

इसे करने के लिए 
किसी वजह की जरूरत नहीं

Sunday 27 November 2016

दुनिया वाले

दुनिया बड़ी शातिर है 
और उससे भी ज़ियादा
दुनियावाले,
नीम दिल में 
और 
शहद दिमाग में लिये फिरते है
फिक्र और फर्क की
इस जद्दोजहद में
रोज़ नये-नये किरदार
बदलते रहते है
मोहब्बत के बनते घोंसलों को
देखकर
ना जाने साज़िशों की
नज़रों से उन्हें तोड़ते रहते है
सच को देखकर 
अनदेखी 
और
झूठ को अपना ईमान बनाकर
दुनिया को गुमराह करते रहते है

औरत

औरत
तुम्हें दया
तुम्हें सहनशील
तुम्हें जिस्म की पुड़िया
की मिसाल नहीं दूँगी
तुम हमेशा लफ्ज़ों से
मिसरी घोलो भी नहीं कहूँगी
चरित्रहीनता पर सिर्फ़ तुम्हारा अधिकार है
ये भी मैं नहीं कहूंगी
तुम्हीं हमेशा ओछी परंपराओं में 
शिरकत लो नहीं कहूँगी
घर की इज्ज़त सिर्फ़ 
एक स्त्री, औरत, लड़की के हाथों में ही रहती है
तुम पे ये दोगली बातें भी नहीं थोपूंगी
तुम आज़ाद हो इन दकियानूसी नियमों से
तुम सिर्फ़ विलासिता की वस्तु नहीं
ना ही तुम हर वक्त सजने वाला फरेबी श्रृंगार
और ना ही तुम उन क्षणिक प्रेमियों की 
क्षणिक प्रेमिका हो जो सिर्फ़ कुछ वक्त तक साथ रहे
तुम हो इस धरती पर
इस समाज में
एक उड़ती चिड़िया
जो उड़ना जानती है
ठहरना जानती है,
अपने सपनों को जीना जानती है
जो आज़ाद है
इन खोटी बंदिशों से
जिनके ऊपर
पंख को फैलाना जानती है
तुमसे सिर्फ़ विनती है कि
कभी झूठी परंपराओं का चोला नहीं अोढ़ना
कभी खुद को खूबसूरती के पैमाने पर मत तौलना
जो खुद खोखले हो वो तुम्हें
हर युग,
हर सदी में
हर राह पर
तुम्हारे विचारों से
तुम्हारी चाल से
तुम्हारे रंग रूप से
तुम्हें मापेंगे
पर याद रखना
तुम कठपुतली नहीं इनकी
जिनकी डोर खुद ऊपरवाले के हाथों में है

Friday 11 November 2016

दो नई कवितायेँ : दस्तक और दिल ए दिमाग

दस्तक 

अजीब है ये इन्तज़ार भी

मालुम है तुम कभी वापस नहीं लौटोगे

तुम मौसम तो नहीं

जो हर बार अपने वायदों को

निभाने लौट आता है

तुम मेरे लिये सख्त शख्स भी नहीं

ना ही मैं वक़र तुम्हारे लिये!

फिर भी मेरी शिथिल आँखें

इन्तज़ार करती है

हम दोनों की

रंजिशों की उन सड़कों पर

शायद तुम रंजिश करते करते थक जाओ फिर तुम इश्क के बाग में दस्तक देने आयोगे

मोहब्बत के तमाम दस्तावेजों के साथ

मेरे अकेलेपन की सांय सांय को महसूस करने...


दिल ए दिमाग

दिये सा दिल

जिसकी लौ धीरे धीरे

धधकती रहती है

इंतज़ार में...

और दिमाग

आग सा जलता है

इंतकाम में

इक नादान दिल है

जो ज़ाहिद की गलतियों को

माफ कर देता है

हर बार

और इक दिमाग

जो शायद साज़िशे करता है

बर्बाद करने के लिए

जीत के जश्न

खुद की खुशी के लिये

दिल की खुशबू को ख़त्म कर देता है

कै़द कर दिल की भावनाओं को

दिलचस्पी से मु़आना करता है

मगर दिल बड़ा ही दिलचस्प शख्स है

जो लफ्ज़ो से खामोश

उम्मीद की उम्र को बढ़ाता

विश्वास के साथ

शायद दिल और दिमाग की

जंग में दोनों अलग नहीं

एक हो जाये।।

Wednesday 26 October 2016

कुछ गुम सा है

हाल
है बेहाल
बेहताशा
बेचैनी रहती है
आजकल कलम 
जो मेरी सबसे अच्छी सखी है
जाने क्यूँ वो रहती है
मुझसे रूठी रूठी

गोते लगाती हूँ
शब्दों के समुद्र में
मगर शब्द भी है रूठे रूठे
लहरो सी है डायरी
जिसके कोरे पन्नों में ढूँढती फिरती हूँ
छुपे अल्फाज़



मैला आंचल

कितनी मैली होती है
ये औरतें
जो जन्म से लेकर मृत्यु तक
अपने आँचल में
परिवार को समेटकर चलती है
शायद खुद की परवाह ना करके
भोर से लेकर रजनी तक
वक्त तो होता है तुम्हारे पास मगर सिर्फ़
अपनों के लिये ,अपने लिए नहीं
इज्ज़त को लिबास समझ कर
हमेशा ओढ़कर चलती है
पुरानी परंपराओं, रीति रिवाज़ को
सखी बनाकर रखती है
ताकि दिल में
कभी कोई टीस या सवाल
ना उठे
मगर फिर भी
तुम्हारे निःस्वार्थ प्रेम को
शक़ की नज़र से देखा जाता है अक्सर
शायद तुम्हारा बेबाकी से बोलना
शर्म को उतारना
चूढ़ी, कंगन,
सिंदूर, मंगलसूत्र से मुक्त करना⁠⁠⁠⁠

Tuesday 18 October 2016

प्रेम ढाई आखर का नहीं


प्रेम
लहर है
हवा है
गर्मी में ठंडक
सर्दी की गर्माहट है...
प्रेम
रौद्र है
सृंगार है
ममता है
उम्मीदों का घोंसला है...
प्रेम
समर्पण है
साजिश़ है
अपनापन है
कभी इन्तज़ार है...
प्रेम
बेबसी है
आँसू है
मुस्कान है
तन्हाई है
प्रेम
रिश्तों की मिठास है
कड़वाहट भी है
चेहरे का नूर
कभी कंलकित भी  है...
प्रेम
बेचैनी है
अकेलापन है
कभी
उपहास है तो कभी
उपन्यास है
प्रेम
शब्द है
अर्थ है
कभी
अनर्थ है
कभी असमर्थ है
प्रेम
स्वतंत्र है
कभी बंदिश है
कभी बंधन है...




निशब्द हूँ

निशब्द हूँ
टीस मची है दिल में
रिस रही है भावनायें
खामोशी के समंदर में 
उठ रही जज़्बात की लहरें 
मोहब्बत के पंख फड़फड़ा रहे
आखिर क्यूँ दुश्मन है आपस में सारा जहां
मनभेद का होता है रोज़ संगम 
गलतफैमियों से कर रखी है यारी यहां
जाने क्यूँ पनपती है ईर्ष्या
जाने क्यूँ रहता है मनमुटाव यहां
धरा-अम्बर सी है दूरी
जो मिल भी जाये कभी
मगर रहती है अधूरी
देखा है अक्सर
इंसानी फूलों को रोते हुए
विश्वास की सुगंध को 
धीरे-धीरे खोते हुये
महसूस हुआ और मलाल भी रहा
इंसानियत मानों दब सी गई हो
इंसानों के अहसानों अहम से,
गरीबी है बहुत यहां
मगर लोगों के दिल में
साज़िशे चलती है 
अक्सर दिमाग में
कहना क्या, करना क्या 
भूला हुआ है 
हर इंसा यहां
मारकर अपने 
अंतर्मन की आवाज़ को
रोज़ करता है, कत्ल़ इंसा यहां
सांपों से ज्यादा इंसानों में बसता
है जहरीला ज़हर यहां
देखती हूँ हर 
इंसा को
लड़ते 
इल्ज़ाम लगाते
मय को जीतते 
इंसानियत को हारते
सोचकर समेटकर शब्दों को
काग़ज पर उछालती हूँ 
विद्रोह करके 
विरोध करके
आखिरकार
निशब्द हो जाती हूँ

Wednesday 5 October 2016

यह कौन सी चिड़िया है ..

हमें नहीं मालूम कि
 प्रेम क्या है
 शायद समझ भी नहीं आनी चाहिए
इसकी गहराई,
जितना सोचोगे 
प्रेम भी मिलेगा
उतना ही समझ से परे
जाने कितने किस्से 
कितने ज़ुमले मिलेंगे 
इस प्रेम के
इसीलिए प्रेम को कभी
 जानो ही मत 
सिर्फ़ महसूस करो
प्रेम प्रदर्शित नहीं, अहसास की चीज़ है 

जिस पर लोग फब्तियां कसे, 
जिस को लोग हेय दृष्टि से देखे,
कितना अजीब हैना ये प्रेम
जो कभी आपसे सुबूत नहीं मांगता, 
जो  कभी  उम्मीद नहीं करता,
जो  कभी बंदिशें नहीं लगाता, 

वो तो आज़ाद करता है 
उस दुनिया से 
जिसमें प्रेम छोड़
शायद सबकुछ होता है,

प्रेम समर्पण है, 
प्रेम त्याग है, 
मगर शायद ज़माने ने, 
ज़माने के लोगों ने 
अपने मनोरंजन के लिये 
प्रेम ज़ुमला को जुमला बना डाला 

जिसपर सब 
अपनी प्रेम कहानियाँ, 
अपना प्रेम अनुभव, 
अपना क्रोध निकालते है
मगर फिर भी  प्रेम खामोश है
शायद उसे बेज़ुबान रहना पसंद है
प्रेम की कोई बोलती भाषा नहीं
सिर्फ़ भावना होती है
भावनायें सुनती है
समझती है 
और महसूस करती है
भावनायें अपनी  टीस 
निकालना चाहती है
गुस्से से
अपमान से
ज़हर बोलकर मगर
प्रेम रोकता है 
क्यूँ कि प्रेम समझाता नहीं 
वो तो समझ जाता है



Monday 3 October 2016

यही इश्क है !

रिश्ता 
ना के बराबर,
मोहब्बत 
रंजिशों से
मोहब्बत 
शिकायतों से
नफरतों की सलाखें
दोनों के दरमिया
बेदर्द है सख्त

पेड़ सा खड़ा है वो
अल्फाज़ों में ज़हर
जो ये जताते
कुछ नहीं 
दोनों के दरमिया
अश्कों की बारिश में
 रोज़ भीगना

सिर्फ़ यही इश्क है 
मेरे लिए
फिर भी कहता 
कोई हक़ नहीं

स्त्री की विडम्बना


स्त्री
अपने विचारों से 
आज़ाद है
मगर,
पुरुषों से आज़ाद नहीं
हर रिश्तें में रहती ज़िन्दा
मगर,
बंदिशों से आज़ाद नहीं
समर्पित कर खुद को 
उपकार करे वो
मगर
लांछन से आज़ाद नहीं
दूसरों का अस्तित्व बनाती
मगर
खुद का कोई अस्तित्व नहीं
जिंदगी है उसकी शायद
मगर
उसपर खुद का कोई अधिकार नहीं
सह जाती है सारी पीड़ा,
मगर
अपनी पीड़ा कहने का अधिकार नहीं
सारे सवालों का देती है वो जवाब
मगर
खुद का कोई सवाल नहीं
प्रश्नचिह्न है यहां पुरूषप्रधान
मगर
आबरू का कोई रखवाला नहीं
कितनी मिसाले है यहां स्त्रियों के प्रति
मगर
हर कोई विश्वास पात्र नहीं....

Tuesday 27 September 2016

इन्तज़ार

एक महीना
साल
अरसा, 
तक 
किया है 
सिर्फ़ 
तेरा इन्तज़ार...
सुबह हुई, 
शाम हुई
हर पहर 
हर पल 
किया है
तेरा इन्तज़ार
कभी 
पत्थर सी मूरत बनी,
कभी 
मोम सी पिघली
पर शायद कभी  
खत्म ना होने वाला
किया है
तेरा इन्तज़ार,
अधूरी बातें 
सुनती है 
ये खामोश निगाहें,
शायद 
गहरे राज़ 
छुपा रखे है 
ज़ेहन में अपने,
समेट लिये  है  
सारे ग़म अपने,
जो कभी 
पुराने पन्नों पर 
नज़र आ जाते है
जो कभी मुस्कुराते 
कभी शिकायत करते
बिखेर दी  
खुशियों की खुशबू
इस क़दर 
कि इन्तज़ार 
महसूस होता है
सिर्फ़ तेरे या मेरे अन्दर

मैं और मेरा अहं

'मैं' और 'मय' 
 दोनों की नज़दीकियों ने 
साज़िशें रची,
जिसमें कई रिश्तें

टूटे, बिखरें और
ग़लतफ
मियों के शिकार हुये
ना जाने कबसे कितनों से
बिन बोले कितने ही केस दर्ज़ हुए,
कहने की फुर्सत नहीं
सुनने का मलाल नहीं
किस्सों में बिकने लगे है ये रिश्ते
कद्र कहीं गुम हो गई शायद
किसी को है कोई ख़बर नहीं,
खोदते है लोग हररोज़ यहां
दम तोड़ते रिश्तों की नई कब्र यहां
कभी सोचा खुद से आओ शुरुआत करें 
फिर से मय ने फुसफुसाया
बुझदिल हो शायद तुम जैसे 
खुद का कोई ख्याल नहीं,
आज अहम से जुड़कर सीखा है मैंने
रिश्तों का ये सूखापन कैसा,
जिसमें रहता कोई और नहीं,

सिवा 'मैं' और 'मय' रिश्ता ऐसा...

  

Sunday 25 September 2016

विंध्य-मैकल लोकरंग- 2

14 तारीख की सुबह को मेरी आँखें उमरिया स्टेशन पर खुली, क्यूंकि मंज़िल वो स्टेशन नहीं बल्कि वो तो मज़िल की शुरुआत थी,  देखकर महसूस हुआ स्टेशन छोटा जरूर  है मगर इसकी एक  खासियत है कि इसको  पलक झपकते ही निहार सकते है।




मैकल पर्वत की वादियों से घिरा,  उमरिया ज़िला मध्यप्रदेश में स्थित है, जहां पर लोगों का रश मानों थमा सा  हो, सड़के शान्त, और थोड़ी दूर-दूर पर दुल्हन सी वहां की मार्केट जिनके शुरू और अन्त दोनों के छोर आपको  ढूँढने से  आसानी से मिल जाएंगें। 

खैर मैं और मेरी खामोशी चुपचाप से थे, नये शहर और नये शहर के लोगों को अवलोकित कर रहे थे, बस नीरज भईया ही थे जिनके के लिये  मैं अंजान नहीं थी, और हो भी कैसे सकती हूँ गई  भी तो उनके कारण ही। उन्होंने बताया था विंध्य मैकल लोकरंग महोत्सव के बारे में पर महसूस तो देखने के बाद हुआ। जो एक ऐसा उत्सव  है जिसे लोग  अकेले नहीं बल्कि सबके साथ मनाते  है, जिसमें हज़ारों लोग इकठ्टा होकर अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा को सबके सामने  रिप्रेजेंट करते है, दूर दूर से आकर अपने हुनर को एक नया नाम देते है। 

ये वो लोग है जिनका समाज से या समाज का इनसे कोई खासा ही लगाव हो, ऐसी जनजातियां जिनके बारे में हम जानना भी पसंद नहीं करते शायद, बड़े अजीब लोग है इनका सुबह सुबह अमर शहीद स्टेडियम में आ जाना और वहां पर हम लोगों के हिसाब से अपने नृत्य की प्रैक्टिस करना, इन लोगों से मिलकर ऐसा लगा कि इनको जिंदगी से ज्यादा नहीं चाहिए ये अब भी अपनी जिंदगी में खुश रहना चाहते है और शायद रहते भी है ,क्यूँ क्योंकि इनकी विशेष इच्छा नहीं है बस २ वक्त की रोटी।
इनके रहन सहन में २३वीं सदी जैसा कोई बदलाव नहीं बहुत ही सिम्पल कपड़े, और फोन भी ऐसे जिनसे सिर्फ़ बात ही हो सके, आदमी जो २ पैसे कमाकर शराब पीकर खुद को मनोरंजित करते है वहीं औरतें अब भी शरम का गहना पहनकर चलती है।

जब हम सब लोग इनके पास जाते थे तो ये लोग ऐसे देखते मानों इनके सामने दूसरी दुनिया के लोग आ गये हो, बड़ी अचम्भित नज़रें लगती, ताज्जुब होता कि हम क्या इनकी ही दुनिया का हिस्सा है!
पुरानी परंपराओं को अपनी किस्मत मानने वाले ये जनजातियां वाकई अजूबे से कम नहीं है,
15 सितंबर से18 सितम्बर तक का मेरा ये  सफ़र  ऐसा रहा मानों किसी ने हमकों कुछ दिन जन्नत में ठहरने की पनाह दे दी हो।  इतना एनर्जेटिक, पाजेटिव, हार्डवर्क से भरा रहा, जहां पर हर नया चेहरा मानो अपने में एक किस्सा हो कहानी हो, जो हर दिन कुछ ना कुछ नया कहता हो। 

जब वापसी हो रही फिर उमरिया स्टेशन जाना दिल बहुत धक धक हो रहा था और अहसास हो रहा कि अरे! अभी तो पंखों से उड़ान भरी थी कि इतनी जल्दी घर आ गया, पहली बार महसूस हो रहा कि यार इतनी जल्दी घर क्यूँ आ गया, थोड़ा और वक्त होता पर ठीक है आखिर ये जिंदगी ट्रेन ही तो है जो हमेशा चलती रहती है जो ठहरती है सिर्फ़ कुछ वक्त के लिये ही। 

यहां से गई अकेली मगर जब उमरिया स्टेशन लौटी तो बहुत सारी हँसी ठिठोली यादों के साथ, तब खामोशी कोसों दूर थी शायद बहुत सारी बातें ,अनुभव बार बार मुस्कुराने पर मजबूर कर रहा हो।



Monday 19 September 2016

विंध्य-मैकल लोकरंग

14 तारीख से 18 तारीख तक मध्यप्रदेश के उमरिया में विंध्य मैकल लोकरंग की धूम रही| यह बताने में हमको बहुत अच्छा लग रहा है कि मैं  भी इस लोकरंग का हिस्सा रही। ये बहुत ही अलग सा और शानदार अनुभव रहा। एक ओर जहां लोकरंग से जुड़ी बारीकियों को पास से जाना वहीं रंगमंच से जुड़े सभी कलाकारों से मिलना, उनसे बात करना, उनके कल्चर को नजदीक से महसूस करना।
साथ ही साथ #विंध्य मैकल की पूरी टीम से मिलना, अलग अलग डिपार्टमेंट के होने के साथ, अपने काम के प्रति समर्पित और फुल टू एनर्जी के साथ काम करना, माहौल को लाईट करने के लिये मस्ती करना...
सबसे अजीब बात ये थी कि हम इस कार्यक्रम में जाना नहीं चाहते थे और उमरिया जैसी जगह तो बिल्कुल भी नहीं, कि अरे यार वहां कैसे जायेंगे १० घन्टे का सफर कैसे कटेगा, एक दिन की बात होती तो चलता भी मगर ५ दिन नहीं!! मगर नीरज भईया जिनको हम ना जाने कबसे और कितने प्रोग्राम को टालते आये नहीं भईया हम नहीं आयेंगे पर देखो, फाईनली वो दिन भी आया कि जाना पड़ा और वहां पर 1 दिन क्या 5 दिन रूकना पड़ा अब लग रहा कि अरे सिर्फ़ 5 दिन ही क्यूँ कम से कम 10 दिन का प्रोग्राम तो होना ही चाहिए था।
लोकरंग के कल्चर वहां की जनजातियां उनके नृत्य जैसे बैंगा, शैल, विरहा परधौनी, करमा, डंडा शैल, गुदुम्ब नृत्य आदि को देखना अलग ही अनुभव रहा, क्यूँ कभी किताब में इनमें एक दो जातियों के नाम ही पढ़े थे, मगर अब इनको देख भी लिया।
सबसे खास बात होती है कि आप चाहे किसी भी फील्ड के क्यूँ ना हो, मगर आप में ये बात होनी चाहिए कि आप हर किरदार को जिये चाहे वो छोटा हो या बड़ा, और यही बात आपको खास बनाती है। इस अनुभव के लिये नीरज भईया थैंक्यू सो मच्चच....साथ ही वहां मौजूद सीधी टीम #प्रवीन भईया, #सुभाष काका, #नरेंद्र सर, #राहुल, #माईम भईया, #कुमारगौरव भईया, #पंकज सर, #अशोक भईया, #संतोष सर आभार ।( कुछ के नाम याद नहीं)साथ ही साथ #लता दी, #कविता दी, #करूणा, #नेहा दी, #दीप धन्यवाद...


Saturday 3 September 2016

परछाई


रछाई !
तू क्या है?
मुझे समझ नहीं आता,
तुझे समझा जाये मगर
फिर भी समझा नहीं जाता,
हर पल तू ही साथ निभाती है,
तुझपे हर बात का इल्ज़ाम लगाया नहीं जाता,
सुबह गुज़री,दिन गुज़रा
बेपरवाह सा मैं , 
तेरा ख्याल नहीं रहता
ढली रात ढूंढे आँखें मेरी
मगर तुझे फिर भी ढूंढा नहीं जाता
कभी सोचता हूँ तुझमें सब्र बहुत है
तभी तू मेरी बातों का 
बुरा नहीं मानती
चाहता हूँ तू भी दूर हो जा
मगर तुझसे दूर हुआ नहीं जाता
सांय सांय करती ये शामें
तेरे छुपने पर मुझे भड़काती है
छोड़ दिया है साथ उसने
मगर तेरे सब्र को सोचकर
तुझसे कुछ कहा नहीं जाता
तल्खियां बढ़ाती है अक्सर तेरी खामोशी
मगर तेरा साथ निभाने की 
आदत पर गुरूर किये बिना रहा नहीं जाता
ग़लती है शायद मेरी
जताया नहीं हक़
इसलिए अब हक़ जताया नहीं जाता...

Saturday 20 August 2016

बेटियां

देश का गौरव होती है ये बेटियाँ हर घर की इज्ज़त आबरू होती है ये बेटियाँ | पापा फोन पर अपने दोस्त से बात करते हुए कह रहे थे | अच्छा लगा सुनकर कि चलो आज उनकी आवाज़ में गर्व था, मानों उनकी खुद की बेटी ने मेडल जीता हो। वे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे | ये देखकर मैं खुशी खुशी कॉलेज को जाने लगी | पापा ने मुझे जाते देखकर मां को बुलाया और कर्कश आवाज से बोले, तुम्हें कितनी बार समझाया है कि राग से कहो कि घर से बाहर निकले तो सूट पहन कर ।  ये स्कर्ट पहनकर नहीं । राग की मां, ये ज़माना लड़कियों के लिये सही नहीं ।

 मां ने शाम को मेरे वापस लौटते समझाया और मैं चुपचाप सुनकर अपने कमरे में चली गई । नींद नहीं आ रही थी, बहुत बेचैनी थी । बहुत सवाल उठ रहे थे मन में | आखिर  लड़कियों के लिए ये समाज तब तक साथ है, जब तक समर्पित है उनके लिए ।  फिर हमारा खुद का वजूद, अस्तित्व, ये सब बातें खोखली ! क्या एक लड़की  एक जीती जागती मशीन है, जिसका रिमोट कंट्रोल समाज के उन हितैषियों के पास है जो  अपने हिसाब से मशीन को चलाना जानते है।  ये कैसे लोग है जो डिप्लोमैटिक गेम खेलते है।  एक तरफ तो कहते है, बेटियाँ देश का गौरव है वहीं दूसरी तरफ घर से बाहर निकलो तो सूट पहन कर ।  आखिर  ये कौन से  ज़माने की बात करते है ये । वही लोग है जो लड़कियों के लिये नियम बनाते है, फैसले लेते है और उम्मीद करते है कि हम चुपचाप से उनको फालो करते रहे, कुछ विपरीत ना कहें और कहें वो जो ज़माने को पसंद हो बस।  बड़े कन्फ्यूज़ लोग है। 

याद आ रहा है मुझे मैंने मां से कहा था मां मुझे लिखने का शौक है राईटर बनना चाहती हूँ प्लीज़ मुझे लिखने के लिए मत टोका कीजिए मगर मां ने  पापा का हवाला देकर समझाया रागिनी बेटा देख तेरे पापा को तेरा ये शेरों शायरी, गज़ल लिखना बिल्कुल पसंद नहीं । फिर भी तुझे  वो कभी लिखने को मना नहीं करते, तू लिख मगर सिर्फ़ अपने तक, किसी को पता नहीं चलना चाहिए।   बस और मैंने कोशिश भी की वो लिखूंगीं जो पापा को पसंद है जैसे आर्टिकल, कविताएँ, कहानियाँ  शेरो शायरियां नहीं, मगर पता नहीं क्यूँ लिखने बैठी तब सिर्फ़ शेरो शायरियां  ही उस दिन से लेकर आजतक मैंने कलम नहीं उठाई । 

 पापा की गलती नहीं क्यूंकि वो इस ज़माने का हिस्सा है और मैं भी खुद को इससे अलग नहीं कर सकते मगर फिर ये ज़माना क्यूँ हमको अलग करता है, अलग सोच रखता है बेटियाँ घर की इज्जत तो बेटे क्या है ? बेटियाँ जहां जाये अपने संस्कारों को लेकर चले कायदे के कपड़े सलीखे से बात करे, शर्रमायें और कम बोलें वही बेटे इन सब से आज़ाद ।  उन्हें ये सब बातों से कोई फर्क नहीं।  अगर इन सबका बोझ बेटों पर हो तो शायद हम जैसी बेटियों के साथ रेप ना हो, हमारे मां बाप हमको घर से बाहर भेजने से कतराये नहीं ।  सड़क पर चलते हुए मनचले छेड़े नहीं, गन्दे गन्दे कमेन्ट पास ना करे, अगर कोई लड़की ओहो सारी घर की इज्जत आबरू अपने खिलाफ हो रहे अन्याय के खिलाफ बेबाक बोले तो उसे ही संशय की नज़रों से ना देखे, क्या लड़कियों के लिए ऐसा हो सकता है।  

जाने दो ये तो मेरे मन की कुंठा है जो आज फूट रही है । आगे भी फूटेगी मगर सिर्फ़ अपने तक, बेटियों तुमने अपनी मेहनत से अपने लिये मुकाम बनाया, और इसमें भी समाज बोलता है तुमने देश का मान बढ़ाया ।  तुम फिक्र मत करो यू ही आगे बढ़ती रहो और तुम्हें देखकर हम जैसी हज़ारों रागिनी खुद के लिए रास्ता बनायेंगी

Monday 11 July 2016

शीशे सा दिल

सख्त हो गए
या शुरू से थे
पत्थर से तुम कभी,
मोम की तरह पिघलना
बहुत कम बोलना
मगर अच्छा बोलना
मेरी हर बात का
मजाकिया जवाब देना
मालूम है हमको
तुम्हारा सब कुछ समझना
मगर मेरे सामनने
ना समझी दिखाना
फ र्क तुम्हें भी पड़ता होगा,
कभी-कभी मेरा ख्याल
भी आता होगा
दिल की गूंजती आवाज को
शातिर दिमाग से खामोश कराना,
अपनी या मेरी
मोहब्बत पर
विराम लगाना
शीशे से दिल को पहले छूना
और फिर छूकर
चकनाचूर कर देना

उसकी खामोशी ...

हां उमस है आज,
बेहद उमस है
है कोई रूठा
कोई है खामोश
जाने कितने लफ्जों से
जाने किन बातों से
जाने किन वादों से
चंचलता को कैद कर रखा है
हंसी सदियों से दस्तक देती है
मगर उदासी की दीवार खड़ी है
बस खामोशी का लिबास पहने
आज नहीं,

एक अरसे से शायद
ये भाव नहीं स्वाभाव है उसका
वह आदतों से
या आदतें उससे मजबूर
उम्मीद नहीं करता वह
शायद नाउम्मीदी उसकी जाहिद
लफ्ज़ों को बंद कर रखा उस ताख में
जो चीखती है, शोर करती है


सुन ले मगर
वह फिक्र से बेफिक्र है
लब और लफ्ज़ों से कोसों दूर
हां उमस है आज
बेहद उमस...



Sunday 10 July 2016

आज भी उसी की हरारत

साँझ साँझ नहीं लगती अब
सुबह सुबह नहीं लगती अब, 

दिन गुज़रता मानों 
सदियां गुज़ार रही हूँ, 
तू तू नहीं अब मैं मैं नहीं हूँ अब,
पाना और खोना किस्मत की बात होती है, 

ऐसी भी किस्मत है मेरी ए ज़ाहिद,
एक एक लफ्ज़ जिससे सीखा,
जिसके लिये सीखा उससे मिले अरसा गुज़र गया,
वो मिला भी सिर्फ़ मेरे अधूरे ख्वाबों में
याद है सिर्फ़ उसकी धुँधली सी बातें
जो कानों में आज भी कम्पन करती है
उसकी धुँधली सी
छवि मेरी सूखी आँखों में
नमी का काम करती रहती है,
पतझड़ सी मैं, बंजर सा दिल मेरा
यूँ ही जागकर उसकी रोज़ 

राह देखता करता है अब भी,
पर लगता है अन्दर ही अन्दर 

कुछ खत्म हो रहा
मानों खुद से ही खुद को

 दूर करने में लगी हुई हूँ,
हरारत है तो आज भी सिर्फ़ उसकी ही!!!



बारिश

बारिश !!!
तुम कितनी चंचल,

नटखट हो
कभी इठलाती 

कभी मुस्कुराती,
बरसती
कभी,
कभी सिर्फ़ बूँदों से 
ठंडक पहुँचाती !
ये तुम्हारी 

आंख मिचोली का खेल ना
सबको भयभीत 

और भ्रम में डाल देता है
अपने सखे बादल को 

शामिल कर,
तुम खूब खेल खेलती हो,
हल्की हल्की बूँदें देख

मन में लालसा उत्पन्न हुई
तुम्हें जानने की

आखिर तुम इतनी चंचल क्यूँ
या अपने अन्दर समेटे कई राज़ को 

अपनी चंचलता से 
छुपाती फिरती तुम
तुम्हारी चंचलता 

प्रश्नों की छड़ी प्रतीत होती
मानों इंसानों जैसी आग 

तुम्हारे बरसते मन में प्रज्वलित होती है,
तभी तुम अपनी दबे की आग से

 सबको भिगो देती हो,
बादल का गरज़ना, बिजली कड़कना
मानों ये तुम्हारे अंदर के ग़म से

बखूबी परिचित हो,
तुम्हारी चंचलता के पीछे 

तुम्हारे ग़म की गहराई का
पता चलता है,
तभी तुम जब बरसती हो ना

तब सिर्फ़ बरसती ही हो,
एक आवेश नज़र आता है,
एक क्रोध,
एक मलाल,
जिसे तुम सिर्फ़ 

बरसकर जताती हो!!

Tuesday 31 May 2016

सुनो...

सुनो...
आज तुम ख्वाबों में आये थे
सुबह के ख्वाबों में
सुना है सुबह के ख्वाब हकीकत बयां करते है
ये ख्वाब जल्द ही सच होंगे
ख्वाबों के बाद अब 
तुम हकीकत में दस्तक दोगे
महसूस हुआ आज
मानों सदियों की खामोशी टूट गई हो
मानों इन्तज़ार की घड़ियाँ अब खत्म होने को है
ये धूप आज चिलचिला नहीं रही 
बल्कि मेरी खुशी में खिलखिला उठी है
क्यूँकि तुम जल्दी लौटकर आने वाले हो...

शायद हां, शायद ना...

वो अजीब है...
कभी करीब है
कभी नसीब है
मिलेगा कभी या सिमटकर रह जायेगा
शायद हां, शायद ना
ख्व़ाबों में आता है,
कहता है मगर कभी कभी,
शायद खामोशी पसंद है उसे
चेहरे पर मुस्कुराहट सजाकर रखता है,

रोज़ देखती हूँ उसे
वो देखता है या नहीं
शायद हां, शायद ना
वक्त ने मिलने से पहले ही दूर कर दिया,
समझाने से पहले ही समझा दिया,
जानता है, या जानना चाहता है
शायद हां, शायद ना

दफ्ऩ है ख्वाहिशें उसकी या मेरी
या फिर हम दोनों की
शायद हां, शायद ना
लफ्ज़ हवाओं जैसे है मेरे भी
कभी ठंडक, कभी गर्माहट देते है
क्या तुम हवा बन सकते हो
शायद हां, शायद ना....




मैं तेरे इश्क की रहगुज़र नहीं

मैं तेरे इश्क की रहगुज़र नहीं जो यूँ ही गुज़र जाऊँ,
तुम्हें पता है जन्नत क्या है? बतलाऊँ तुम्हें तो सुनों..
मेरे लिये तुम्हें देखना,
तुम्हें महसूस करना,
तुम्हें हर वक्त जानना,
तुमसे किसी ना किसी बहाने से बात करना ही,
मेरे लिये जन्नत है...
अब तुम सोचोगें कि इस ज़माने में भी ऐसे इश्क करने वाले लोग होते है?

तो सुनो..
ज़माना कैसा भी क्यूँ ना हो,
लोग कितने भी बदले हुये क्यूँ ना हो इश्क करने वालो के लिये
ज़माने, बदले हुये लोगों से मतलब नहीं
वो तो सिर्फ़ अपने इश्क में मशगूल रहते है,
वो तो सिर्फ़ अपनी मोहब्बत में डूबे रहते है,
समझ आया ना!!!मैं तेरे इश्क की रहगुज़र नहीं, 
जो यूँ ही गुज़र जाऊँ...

बोलूँ कुछ... !!

बोलूँ कुछ...!!!
सुनोंगे मगर समझोंगे नहीं
भावनायें क्या
ये लहरें है
जो कभी उठती है, 
कभी ठहरती है
कभी पिंज़रे में बंद
पंक्षी सी फड़फड़ाती है
तो कभी पिंज़रे में ही
 इठलाती भी है

प्यार क्या !
इसके लिये एक लफ्ज़ कहो या हज़ार 
फिर भी ना जाने कम ही लगता है

नफ़रत क्या..! 
इसकी खासियत कहो 
या ख़ामी
ये जहां में एक ही से हो सकती है
इसका हक़दार हर कोई नहीं

दोस्ती क्या.. !
विश्वास की डोर कमज़ोर हो सकती है 
मग़र टूट नहीं सकती,
दोस्त ज़्यादा हो सकते है
मगर दोस्ती कुछ से ही
जिनसें शिकायत भी शिक़वे भी