आज उसने आईना गौर से देखा, बड़ा धुंधला सा नज़र आ रहा था। कुछ समझ नहीं पा रही थी, आईना धुंधला पड़ गया है या फिर उसकी आँखें ऐसे देखने लगी हैं! इस बात को नजरअदांज कर दें तो बालों में सफेदी अधिक झांकने लगी है। छिटपुट काले बाल भी महज कुछ ही दिन के और मेहमान नज़र आ रहे।
गहरी सांस लेते हुये वह बड़बड़ाई, ‘’आईना नहीं मेरी याददास्त ही धुँधली हो गई है। अब देखो वक्त कितनी जल्दी गुजरता है, जैसे कल ही इस घर में मैं लाल जोड़े में आई होऊं। माँ, बाबू जी सब धीरे धीरे चले गए। अरे माँ बाबू का तो वक्त आ गया था पर इन्होने ! इन्होने तो सात जन्म तक का साथ निभाने की कसमें खाई थी, यह जनम भी नहीं निभाए। मुझे छोड़ गए अकेले, विरहिन बना के। समझ नहीं आता क्यों सात जन्म के कसमें वादे खाते हैं, जब यह भी जन्म पूरा नहीं निभाया जाता।
वह शीशे में अपने आपको देखते हुए खो सी गई, ’आठ साल बीत गए शान के पापा को गुजरे हुये, ये घर भी वहीं है यहां के कमरे भी वही हैं। ऐसा लगता है शान के पापा साँझ होते ही लौटते होंगे, और आवाज देंगे .. ‘’कमला अरी भाग्यवान ज़रा एक कफ चाय तो बनाना’’, ‘और मैं झल्लाते हुये बोलूँगीं घर में तबियत से पैर रखा नहीं और चाय चाय की रट शुरू’’ । उनके जाने के बाद अब मन ही नहीं लगता, जिस पर झल्लाती थी वो वजह ही खत्म हो गई। शान की शादी भी इनके जीवित रहते हो गई, अच्छा ही हुआ। जीते जी बहू देख लिए। पूजा बहू ने दो साल में हम सब को दादा दादी बना दिया।
इन्होने नाम भी पोते का ऐसा रखा .. बेटे का शान और पोते का ‘शानू’ । ये रोज सुबह सुबह पार्क लेकर जाते थे, जब दोनों दादा पोते वापस लौटते तो वही अदा, ‘’ कमला, अरी भाग्यवान जरा एक कफ चाय तो बनाना । यह सुनकर इन पर बहुत झुनझुलाहट आती मगर शानू की तो तोतली आवाज सुनते ही सब अच्छा हो जाता, जैसे कानों में कोई मिसरी घोल जाता।
शान और पूजा के ऑफिस से आते आते शानू सो चुका होता था। पूजा रोज ही पूछती, ‘’माँ शानू ने आप लोगों को तंग तो नहीं किया ज्यादा, और मैं झिड़कते हुए कहती थी, ‘’ अरे जाओ .. मेरा पोता किशन कन्हईंया है’’ और वह मुस्कुराते हुये चली जाती।
मगर जब से शान के पापा गये तब से तो दिन ही नहीे कटता। ये घड़ी की टिक टिक भी कान में चुभती है, और और वह पेड़ की छाया जो शाम होते ही घर की सीढी तक आ जाती थी, वह भी जल्दी नहीं आती।
ये जिंदगी है की अब तो कटने का नाम नहीं लेती, एक एक मिनट पहाड़ हुआ जा रहा । आखिर हमें भी क्यों नहीं बुला लेता भगवान … ! अब तो शानू भी कोई स्कूल जाने लगा है, बड़ा हो गया है। मेरी नहीं इच्छा अब कुछ और देखने की ।
अब ये घर तो भायं भायं करता है, जैसे पीछे पीछे उदासी की कोई छाया चलती है। सब कुछ होने के बाद भी एक अधूरापन सा रहता है । कमला कभी अतीत तो कभी वर्तमान में गोते लगा ही रही थी कि जोर से घंटी बजी और उसकी तन्द्रा टूटी। हड़बड़ा कुंडी खोला तो शानू और उसके मामी-पापा थे। वह उससे तेजी लिपट गया।
कमला ने कहा, “ चलो अंदर पहले जूते- कपडे वगैरह निकालो, आठ पैर धुलो, भूख लगी होगी । शानू ने उसके चेहरे की तरफ देखा और कहा, हे दादी आप रो रहीं, क्यों?’’ वह अपने सवालों की बौछार शुरू कर चुका था, हमेशा की तरह ।
कमला ने आँख पोंछते हुए कहा, कुछ नहीं- कुछ नहीं बस ऐसे ही । शानू ने जिद कर लिया, तो कमला ने लगभग हारते हुए कहा, कुछ नहीं बाबा, बस तुम्हारे दादा की याद आ गई थी… इतना कह कर वह पोते को अपने आँचल में छिपा ली…. और पोता हंसे जा रहा था .. ‘ दादी को दादा की याद आ रही’…