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Wednesday 6 April 2016

कोई अहसास नासूर सा...

हर वक्त हर पल अन्दर ही अन्दर तेरी यादें कचोटती रहती है। लगता है मैं तो क्लेयर थी, मगर छी.. छी.. छी…!आखिर क्यूँ आया वह जिंद़गी में, जिसने पल-पल घुटने के लिये छोड़ दिया, आखिर मेरी ग़लती क्या थी, जो उसने इतनी बड़ी सज़ा सुना दी । आज जिन्दा होकर भी जिन्दा नहीं, ऐसे घाव दिये जो दिखते नहीं, मगर हर पल दर्द देते रहते है।

खुद को बड़ा छला हुआ सा महसूस करती हूँ, मानों किसी ने प्यार ही प्यार में छल लिया हो। फिर सोचती हूं अगर वो ऐसा ही था तो प्रभु क्यूँ मिलवाया तूने ऐसे बेरहम इंसान से, जिसे मेरे होने से कोई फर्क़ नहीं पड़ता, मगर उसके ना होने से मुझे कितना फर्क़ पड़ता है ये तो मैं ही जानती हूँ। जैसे दीमक अन्दर ही अन्दर लकड़ी को खोखला कर देती है, ठीक वैसे ही उसकी गैऱमौजूदगी मुझे अन्दर ही अन्दर खोखला कर रही है।प्यार और प्यार का अहसास अब नासूर सा लगता है, जिसकी मिठास ज़हर से भी ज्यादा जहरीली लगती है।

कितना अजीब होता है ना, ये अहसास ! पहले तो हर किसी के लिये आता नहीं, और जब आता है तो उसके लिये बहता ही रहता है, कभी आँसू बनकर, कभी इन्तज़ार बनकर, तो कभी ख्वाब बनकर। कभी-कभी लगता है, काश ! जिंद़गी में ये अहसास उन लोगों के लिये मौजूद होना चाहिये जो बेइंतहा मोहब्बत करते है मुझसे, मगर होता इसके ठीक उल्टा है। ये अहसास होता जरूर है मगर उनके लिये जिनके लिये हम कुछ भी मायने नहीं रखते, ना तब और ना अब।

पहले सोचती थी कि ये शायर, कवि इनकी दर्द भरी शायरी, भावनात्मक कवितायें आखिर कैसे बनती होंगी, पर आज ये धुँध भी साफ हो गई। उनके भी दिल टूटे होंगे, उनका भी दम घुटता होगा, उनकी भी बेपनाह मोहब्बत ने दम तोड़ा होगा। कोई टूट जाता है, तो कोई टूटकर बिखर जाता ही है इसमे।

लगता है भूल जाओ उस शख्स को, पर काश... ! हो पाता ऐसा । दुनिया को दिखाने के लिये हँसना ही पड़ता है। खासकर उस शख्स के सामने, यह दिखाने के लिए कि,’’देखो तुम्हे क्या लगता है मैं जी नहीं पाऊँगी मगर देखो मैं कितनी खुश हूँ।’’

फिर खुद ही सोच में पड़ जाती हूँ, क्या वाकई में खुश हूँ या फिर अब खुद से ही छलावा करने लगी हूँ ? आखिर कब तक बिखरती रहूँगी, कब तक उसकी यादें ठहरी रहेगी मेरे जहन में, उसकी हर बातें मेरे दिलो दिमाग में चलती रहेंगी, क्या करूँ, किससे कहूं। ये कहकर पाखी फूट फूट कर रोने लगी, उसकी सारी समझदारी धरी की धरी रह गई, बावरी हो चुकी थी, और बहुत तरस खा रही थी खुद की हालत देखकर, मानो वो एक पंछी है जिसे पिंजरे में क़ैद कर लिया हो और बाहर निकलने के लिये फड़फड़ा रही हो।

पिंजरे को खोलने वाले वहां मौजूद बहुत लोग थे मगर अफसोस दिल नहीं दिमाग वाले। पाक़ पाखी सिर्फ़ खुद को तमाशा मान रही थी सिर्फ तमाशा।।।

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