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Monday 11 July 2016

शीशे सा दिल

सख्त हो गए
या शुरू से थे
पत्थर से तुम कभी,
मोम की तरह पिघलना
बहुत कम बोलना
मगर अच्छा बोलना
मेरी हर बात का
मजाकिया जवाब देना
मालूम है हमको
तुम्हारा सब कुछ समझना
मगर मेरे सामनने
ना समझी दिखाना
फ र्क तुम्हें भी पड़ता होगा,
कभी-कभी मेरा ख्याल
भी आता होगा
दिल की गूंजती आवाज को
शातिर दिमाग से खामोश कराना,
अपनी या मेरी
मोहब्बत पर
विराम लगाना
शीशे से दिल को पहले छूना
और फिर छूकर
चकनाचूर कर देना

उसकी खामोशी ...

हां उमस है आज,
बेहद उमस है
है कोई रूठा
कोई है खामोश
जाने कितने लफ्जों से
जाने किन बातों से
जाने किन वादों से
चंचलता को कैद कर रखा है
हंसी सदियों से दस्तक देती है
मगर उदासी की दीवार खड़ी है
बस खामोशी का लिबास पहने
आज नहीं,

एक अरसे से शायद
ये भाव नहीं स्वाभाव है उसका
वह आदतों से
या आदतें उससे मजबूर
उम्मीद नहीं करता वह
शायद नाउम्मीदी उसकी जाहिद
लफ्ज़ों को बंद कर रखा उस ताख में
जो चीखती है, शोर करती है


सुन ले मगर
वह फिक्र से बेफिक्र है
लब और लफ्ज़ों से कोसों दूर
हां उमस है आज
बेहद उमस...



Sunday 10 July 2016

आज भी उसी की हरारत

साँझ साँझ नहीं लगती अब
सुबह सुबह नहीं लगती अब, 

दिन गुज़रता मानों 
सदियां गुज़ार रही हूँ, 
तू तू नहीं अब मैं मैं नहीं हूँ अब,
पाना और खोना किस्मत की बात होती है, 

ऐसी भी किस्मत है मेरी ए ज़ाहिद,
एक एक लफ्ज़ जिससे सीखा,
जिसके लिये सीखा उससे मिले अरसा गुज़र गया,
वो मिला भी सिर्फ़ मेरे अधूरे ख्वाबों में
याद है सिर्फ़ उसकी धुँधली सी बातें
जो कानों में आज भी कम्पन करती है
उसकी धुँधली सी
छवि मेरी सूखी आँखों में
नमी का काम करती रहती है,
पतझड़ सी मैं, बंजर सा दिल मेरा
यूँ ही जागकर उसकी रोज़ 

राह देखता करता है अब भी,
पर लगता है अन्दर ही अन्दर 

कुछ खत्म हो रहा
मानों खुद से ही खुद को

 दूर करने में लगी हुई हूँ,
हरारत है तो आज भी सिर्फ़ उसकी ही!!!



बारिश

बारिश !!!
तुम कितनी चंचल,

नटखट हो
कभी इठलाती 

कभी मुस्कुराती,
बरसती
कभी,
कभी सिर्फ़ बूँदों से 
ठंडक पहुँचाती !
ये तुम्हारी 

आंख मिचोली का खेल ना
सबको भयभीत 

और भ्रम में डाल देता है
अपने सखे बादल को 

शामिल कर,
तुम खूब खेल खेलती हो,
हल्की हल्की बूँदें देख

मन में लालसा उत्पन्न हुई
तुम्हें जानने की

आखिर तुम इतनी चंचल क्यूँ
या अपने अन्दर समेटे कई राज़ को 

अपनी चंचलता से 
छुपाती फिरती तुम
तुम्हारी चंचलता 

प्रश्नों की छड़ी प्रतीत होती
मानों इंसानों जैसी आग 

तुम्हारे बरसते मन में प्रज्वलित होती है,
तभी तुम अपनी दबे की आग से

 सबको भिगो देती हो,
बादल का गरज़ना, बिजली कड़कना
मानों ये तुम्हारे अंदर के ग़म से

बखूबी परिचित हो,
तुम्हारी चंचलता के पीछे 

तुम्हारे ग़म की गहराई का
पता चलता है,
तभी तुम जब बरसती हो ना

तब सिर्फ़ बरसती ही हो,
एक आवेश नज़र आता है,
एक क्रोध,
एक मलाल,
जिसे तुम सिर्फ़ 

बरसकर जताती हो!!