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Tuesday 27 September 2016

इन्तज़ार

एक महीना
साल
अरसा, 
तक 
किया है 
सिर्फ़ 
तेरा इन्तज़ार...
सुबह हुई, 
शाम हुई
हर पहर 
हर पल 
किया है
तेरा इन्तज़ार
कभी 
पत्थर सी मूरत बनी,
कभी 
मोम सी पिघली
पर शायद कभी  
खत्म ना होने वाला
किया है
तेरा इन्तज़ार,
अधूरी बातें 
सुनती है 
ये खामोश निगाहें,
शायद 
गहरे राज़ 
छुपा रखे है 
ज़ेहन में अपने,
समेट लिये  है  
सारे ग़म अपने,
जो कभी 
पुराने पन्नों पर 
नज़र आ जाते है
जो कभी मुस्कुराते 
कभी शिकायत करते
बिखेर दी  
खुशियों की खुशबू
इस क़दर 
कि इन्तज़ार 
महसूस होता है
सिर्फ़ तेरे या मेरे अन्दर

मैं और मेरा अहं

'मैं' और 'मय' 
 दोनों की नज़दीकियों ने 
साज़िशें रची,
जिसमें कई रिश्तें

टूटे, बिखरें और
ग़लतफ
मियों के शिकार हुये
ना जाने कबसे कितनों से
बिन बोले कितने ही केस दर्ज़ हुए,
कहने की फुर्सत नहीं
सुनने का मलाल नहीं
किस्सों में बिकने लगे है ये रिश्ते
कद्र कहीं गुम हो गई शायद
किसी को है कोई ख़बर नहीं,
खोदते है लोग हररोज़ यहां
दम तोड़ते रिश्तों की नई कब्र यहां
कभी सोचा खुद से आओ शुरुआत करें 
फिर से मय ने फुसफुसाया
बुझदिल हो शायद तुम जैसे 
खुद का कोई ख्याल नहीं,
आज अहम से जुड़कर सीखा है मैंने
रिश्तों का ये सूखापन कैसा,
जिसमें रहता कोई और नहीं,

सिवा 'मैं' और 'मय' रिश्ता ऐसा...

  

Sunday 25 September 2016

विंध्य-मैकल लोकरंग- 2

14 तारीख की सुबह को मेरी आँखें उमरिया स्टेशन पर खुली, क्यूंकि मंज़िल वो स्टेशन नहीं बल्कि वो तो मज़िल की शुरुआत थी,  देखकर महसूस हुआ स्टेशन छोटा जरूर  है मगर इसकी एक  खासियत है कि इसको  पलक झपकते ही निहार सकते है।




मैकल पर्वत की वादियों से घिरा,  उमरिया ज़िला मध्यप्रदेश में स्थित है, जहां पर लोगों का रश मानों थमा सा  हो, सड़के शान्त, और थोड़ी दूर-दूर पर दुल्हन सी वहां की मार्केट जिनके शुरू और अन्त दोनों के छोर आपको  ढूँढने से  आसानी से मिल जाएंगें। 

खैर मैं और मेरी खामोशी चुपचाप से थे, नये शहर और नये शहर के लोगों को अवलोकित कर रहे थे, बस नीरज भईया ही थे जिनके के लिये  मैं अंजान नहीं थी, और हो भी कैसे सकती हूँ गई  भी तो उनके कारण ही। उन्होंने बताया था विंध्य मैकल लोकरंग महोत्सव के बारे में पर महसूस तो देखने के बाद हुआ। जो एक ऐसा उत्सव  है जिसे लोग  अकेले नहीं बल्कि सबके साथ मनाते  है, जिसमें हज़ारों लोग इकठ्टा होकर अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा को सबके सामने  रिप्रेजेंट करते है, दूर दूर से आकर अपने हुनर को एक नया नाम देते है। 

ये वो लोग है जिनका समाज से या समाज का इनसे कोई खासा ही लगाव हो, ऐसी जनजातियां जिनके बारे में हम जानना भी पसंद नहीं करते शायद, बड़े अजीब लोग है इनका सुबह सुबह अमर शहीद स्टेडियम में आ जाना और वहां पर हम लोगों के हिसाब से अपने नृत्य की प्रैक्टिस करना, इन लोगों से मिलकर ऐसा लगा कि इनको जिंदगी से ज्यादा नहीं चाहिए ये अब भी अपनी जिंदगी में खुश रहना चाहते है और शायद रहते भी है ,क्यूँ क्योंकि इनकी विशेष इच्छा नहीं है बस २ वक्त की रोटी।
इनके रहन सहन में २३वीं सदी जैसा कोई बदलाव नहीं बहुत ही सिम्पल कपड़े, और फोन भी ऐसे जिनसे सिर्फ़ बात ही हो सके, आदमी जो २ पैसे कमाकर शराब पीकर खुद को मनोरंजित करते है वहीं औरतें अब भी शरम का गहना पहनकर चलती है।

जब हम सब लोग इनके पास जाते थे तो ये लोग ऐसे देखते मानों इनके सामने दूसरी दुनिया के लोग आ गये हो, बड़ी अचम्भित नज़रें लगती, ताज्जुब होता कि हम क्या इनकी ही दुनिया का हिस्सा है!
पुरानी परंपराओं को अपनी किस्मत मानने वाले ये जनजातियां वाकई अजूबे से कम नहीं है,
15 सितंबर से18 सितम्बर तक का मेरा ये  सफ़र  ऐसा रहा मानों किसी ने हमकों कुछ दिन जन्नत में ठहरने की पनाह दे दी हो।  इतना एनर्जेटिक, पाजेटिव, हार्डवर्क से भरा रहा, जहां पर हर नया चेहरा मानो अपने में एक किस्सा हो कहानी हो, जो हर दिन कुछ ना कुछ नया कहता हो। 

जब वापसी हो रही फिर उमरिया स्टेशन जाना दिल बहुत धक धक हो रहा था और अहसास हो रहा कि अरे! अभी तो पंखों से उड़ान भरी थी कि इतनी जल्दी घर आ गया, पहली बार महसूस हो रहा कि यार इतनी जल्दी घर क्यूँ आ गया, थोड़ा और वक्त होता पर ठीक है आखिर ये जिंदगी ट्रेन ही तो है जो हमेशा चलती रहती है जो ठहरती है सिर्फ़ कुछ वक्त के लिये ही। 

यहां से गई अकेली मगर जब उमरिया स्टेशन लौटी तो बहुत सारी हँसी ठिठोली यादों के साथ, तब खामोशी कोसों दूर थी शायद बहुत सारी बातें ,अनुभव बार बार मुस्कुराने पर मजबूर कर रहा हो।



Monday 19 September 2016

विंध्य-मैकल लोकरंग

14 तारीख से 18 तारीख तक मध्यप्रदेश के उमरिया में विंध्य मैकल लोकरंग की धूम रही| यह बताने में हमको बहुत अच्छा लग रहा है कि मैं  भी इस लोकरंग का हिस्सा रही। ये बहुत ही अलग सा और शानदार अनुभव रहा। एक ओर जहां लोकरंग से जुड़ी बारीकियों को पास से जाना वहीं रंगमंच से जुड़े सभी कलाकारों से मिलना, उनसे बात करना, उनके कल्चर को नजदीक से महसूस करना।
साथ ही साथ #विंध्य मैकल की पूरी टीम से मिलना, अलग अलग डिपार्टमेंट के होने के साथ, अपने काम के प्रति समर्पित और फुल टू एनर्जी के साथ काम करना, माहौल को लाईट करने के लिये मस्ती करना...
सबसे अजीब बात ये थी कि हम इस कार्यक्रम में जाना नहीं चाहते थे और उमरिया जैसी जगह तो बिल्कुल भी नहीं, कि अरे यार वहां कैसे जायेंगे १० घन्टे का सफर कैसे कटेगा, एक दिन की बात होती तो चलता भी मगर ५ दिन नहीं!! मगर नीरज भईया जिनको हम ना जाने कबसे और कितने प्रोग्राम को टालते आये नहीं भईया हम नहीं आयेंगे पर देखो, फाईनली वो दिन भी आया कि जाना पड़ा और वहां पर 1 दिन क्या 5 दिन रूकना पड़ा अब लग रहा कि अरे सिर्फ़ 5 दिन ही क्यूँ कम से कम 10 दिन का प्रोग्राम तो होना ही चाहिए था।
लोकरंग के कल्चर वहां की जनजातियां उनके नृत्य जैसे बैंगा, शैल, विरहा परधौनी, करमा, डंडा शैल, गुदुम्ब नृत्य आदि को देखना अलग ही अनुभव रहा, क्यूँ कभी किताब में इनमें एक दो जातियों के नाम ही पढ़े थे, मगर अब इनको देख भी लिया।
सबसे खास बात होती है कि आप चाहे किसी भी फील्ड के क्यूँ ना हो, मगर आप में ये बात होनी चाहिए कि आप हर किरदार को जिये चाहे वो छोटा हो या बड़ा, और यही बात आपको खास बनाती है। इस अनुभव के लिये नीरज भईया थैंक्यू सो मच्चच....साथ ही वहां मौजूद सीधी टीम #प्रवीन भईया, #सुभाष काका, #नरेंद्र सर, #राहुल, #माईम भईया, #कुमारगौरव भईया, #पंकज सर, #अशोक भईया, #संतोष सर आभार ।( कुछ के नाम याद नहीं)साथ ही साथ #लता दी, #कविता दी, #करूणा, #नेहा दी, #दीप धन्यवाद...


Saturday 3 September 2016

परछाई


रछाई !
तू क्या है?
मुझे समझ नहीं आता,
तुझे समझा जाये मगर
फिर भी समझा नहीं जाता,
हर पल तू ही साथ निभाती है,
तुझपे हर बात का इल्ज़ाम लगाया नहीं जाता,
सुबह गुज़री,दिन गुज़रा
बेपरवाह सा मैं , 
तेरा ख्याल नहीं रहता
ढली रात ढूंढे आँखें मेरी
मगर तुझे फिर भी ढूंढा नहीं जाता
कभी सोचता हूँ तुझमें सब्र बहुत है
तभी तू मेरी बातों का 
बुरा नहीं मानती
चाहता हूँ तू भी दूर हो जा
मगर तुझसे दूर हुआ नहीं जाता
सांय सांय करती ये शामें
तेरे छुपने पर मुझे भड़काती है
छोड़ दिया है साथ उसने
मगर तेरे सब्र को सोचकर
तुझसे कुछ कहा नहीं जाता
तल्खियां बढ़ाती है अक्सर तेरी खामोशी
मगर तेरा साथ निभाने की 
आदत पर गुरूर किये बिना रहा नहीं जाता
ग़लती है शायद मेरी
जताया नहीं हक़
इसलिए अब हक़ जताया नहीं जाता...