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Sunday 25 September 2016

विंध्य-मैकल लोकरंग- 2

14 तारीख की सुबह को मेरी आँखें उमरिया स्टेशन पर खुली, क्यूंकि मंज़िल वो स्टेशन नहीं बल्कि वो तो मज़िल की शुरुआत थी,  देखकर महसूस हुआ स्टेशन छोटा जरूर  है मगर इसकी एक  खासियत है कि इसको  पलक झपकते ही निहार सकते है।




मैकल पर्वत की वादियों से घिरा,  उमरिया ज़िला मध्यप्रदेश में स्थित है, जहां पर लोगों का रश मानों थमा सा  हो, सड़के शान्त, और थोड़ी दूर-दूर पर दुल्हन सी वहां की मार्केट जिनके शुरू और अन्त दोनों के छोर आपको  ढूँढने से  आसानी से मिल जाएंगें। 

खैर मैं और मेरी खामोशी चुपचाप से थे, नये शहर और नये शहर के लोगों को अवलोकित कर रहे थे, बस नीरज भईया ही थे जिनके के लिये  मैं अंजान नहीं थी, और हो भी कैसे सकती हूँ गई  भी तो उनके कारण ही। उन्होंने बताया था विंध्य मैकल लोकरंग महोत्सव के बारे में पर महसूस तो देखने के बाद हुआ। जो एक ऐसा उत्सव  है जिसे लोग  अकेले नहीं बल्कि सबके साथ मनाते  है, जिसमें हज़ारों लोग इकठ्टा होकर अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा को सबके सामने  रिप्रेजेंट करते है, दूर दूर से आकर अपने हुनर को एक नया नाम देते है। 

ये वो लोग है जिनका समाज से या समाज का इनसे कोई खासा ही लगाव हो, ऐसी जनजातियां जिनके बारे में हम जानना भी पसंद नहीं करते शायद, बड़े अजीब लोग है इनका सुबह सुबह अमर शहीद स्टेडियम में आ जाना और वहां पर हम लोगों के हिसाब से अपने नृत्य की प्रैक्टिस करना, इन लोगों से मिलकर ऐसा लगा कि इनको जिंदगी से ज्यादा नहीं चाहिए ये अब भी अपनी जिंदगी में खुश रहना चाहते है और शायद रहते भी है ,क्यूँ क्योंकि इनकी विशेष इच्छा नहीं है बस २ वक्त की रोटी।
इनके रहन सहन में २३वीं सदी जैसा कोई बदलाव नहीं बहुत ही सिम्पल कपड़े, और फोन भी ऐसे जिनसे सिर्फ़ बात ही हो सके, आदमी जो २ पैसे कमाकर शराब पीकर खुद को मनोरंजित करते है वहीं औरतें अब भी शरम का गहना पहनकर चलती है।

जब हम सब लोग इनके पास जाते थे तो ये लोग ऐसे देखते मानों इनके सामने दूसरी दुनिया के लोग आ गये हो, बड़ी अचम्भित नज़रें लगती, ताज्जुब होता कि हम क्या इनकी ही दुनिया का हिस्सा है!
पुरानी परंपराओं को अपनी किस्मत मानने वाले ये जनजातियां वाकई अजूबे से कम नहीं है,
15 सितंबर से18 सितम्बर तक का मेरा ये  सफ़र  ऐसा रहा मानों किसी ने हमकों कुछ दिन जन्नत में ठहरने की पनाह दे दी हो।  इतना एनर्जेटिक, पाजेटिव, हार्डवर्क से भरा रहा, जहां पर हर नया चेहरा मानो अपने में एक किस्सा हो कहानी हो, जो हर दिन कुछ ना कुछ नया कहता हो। 

जब वापसी हो रही फिर उमरिया स्टेशन जाना दिल बहुत धक धक हो रहा था और अहसास हो रहा कि अरे! अभी तो पंखों से उड़ान भरी थी कि इतनी जल्दी घर आ गया, पहली बार महसूस हो रहा कि यार इतनी जल्दी घर क्यूँ आ गया, थोड़ा और वक्त होता पर ठीक है आखिर ये जिंदगी ट्रेन ही तो है जो हमेशा चलती रहती है जो ठहरती है सिर्फ़ कुछ वक्त के लिये ही। 

यहां से गई अकेली मगर जब उमरिया स्टेशन लौटी तो बहुत सारी हँसी ठिठोली यादों के साथ, तब खामोशी कोसों दूर थी शायद बहुत सारी बातें ,अनुभव बार बार मुस्कुराने पर मजबूर कर रहा हो।



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