परछाई !
तू क्या है?मुझे समझ नहीं आता,तुझे समझा जाये मगरफिर भी समझा नहीं जाता,
हर पल तू ही साथ निभाती है,
तुझपे हर बात का इल्ज़ाम लगाया नहीं जाता,
सुबह गुज़री,दिन गुज़रा
बेपरवाह सा मैं ,तेरा ख्याल नहीं रहताढली रात ढूंढे आँखें मेरी
मगर तुझे फिर भी ढूंढा नहीं जाता
कभी सोचता हूँ तुझमें सब्र बहुत है
तभी तू मेरी बातों काबुरा नहीं मानतीचाहता हूँ तू भी दूर हो जा
मगर तुझसे दूर हुआ नहीं जाता
सांय सांय करती ये शामें
तेरे छुपने पर मुझे भड़काती है
छोड़ दिया है साथ उसने
मगर तेरे सब्र को सोचकर
तुझसे कुछ कहा नहीं जाता
तल्खियां बढ़ाती है अक्सर तेरी खामोशीमगर तेरा साथ निभाने कीआदत पर गुरूर किये बिना रहा नहीं जाताग़लती है शायद मेरी
जताया नहीं हक़
इसलिए अब हक़ जताया नहीं जाता...
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पर दम निकले,बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले...
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Saturday 3 September 2016
परछाई
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