रोज़ दर रोज़
अब टीस बन गई है जो अब
इसकी हरारत से अक्सर
खुद को खुद में ही गुम पाती हूँ
शायद है कोई है ग़म का भँवर
जिसमें जा रही हूं उलझती हुई
कोशिश करती हूँ
उलझनों को सुलझाने की
पर कुछ नई गांठें पड़ जाती हैं
एक तरफ लगाती हूं नए पैबंद
दूसरी तरफ से उखड़ जाती है