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Monday 20 March 2017

उदासी

अब महसूस होता है
मुझे कि उदासी तुमसे
मेरा गहरा रिश्ता हो चला है
जो मेरे विचारों,
भावनाओं, बातों,
और मेरी मुस्कान में
खुशबू की तरह
हमेशा मौजूद रहती हो,
तुमने मेरे अंदर की रिक्तता को
मानों जड़ से ख़त्म कर दिया हो,
कितनी अच्छी होना ना तुम
जो ना बादलों की तरह गरजती है
और ना बारिश की तरह बरसती है
बस ख़ामोशी के प्रेम में लहराती
रहती हो!

Saturday 18 March 2017

शीशे सा दिल!

शीशे सा दिल!!! 
सख्त हो गये, या 
शुरू से थे पत्थर तुम
कभी मोम की तरह पिघलना, 
बहुत कम बोलना,
मगर अच्छा बोलना 
मेरी हर बात का मज़ाकिया जवाब देना!
मालुम है हमको!!! 
तुम्हारा सबकुछ समझना, 
मगर मेरे सामने नासमझी दिखाना,
फर्क़ तुम्हें भी पड़ता होगा, 
कभी कभी जब मेरा ख्याल आता होगा, 
 दिल की गूँजती आवाज़ को 
 शातिर दिमाग से ख़ामोश कराना, 
अपनी या मेरी मोहब्बत पर, 
विराम चिह्न लगाना 
शीशे से दिल को पहले छूना 
 और फिर
 छूकर चकनाचूर करना!
विभा परमार

Wednesday 15 March 2017

सदाएं ..

वो सांझ
वो सुबह
कितनी मँहगी थी ना
जिसको कोई खरीद नहीं सकता था
ना तुम ना हम
पर आज कुछ अहसास हुआ
शायद दस्तक दी खरीददारों ने
कोशिश हुई
तुमको मुझसे दूर करने की
ख़ामोशी से मैं
सिर्फ़ तुमको ताकती रही
और देखते ही देखते
तुम आसानी से बिक गए
थी कुछ बात जो तुमसे कहनी थी
और शायद सुननी थी
मगर अब वो भी सहम सी गई
क्यूँ कि उसे मालूम है
तुम बिक चुके हो
उन खरीददारों के हाथों में
भावनाओं का समंदर जो गहरा था
वो खत्म हो रहा
अब ना तुमसे शिकायत
और ना कोई उम्मीद
सिर्फ़ है बस मलाल
जो रह रह कर
दिल को कचोटता है
अहसास और अहमियत जैसी बातें
फटे पन्नों पर सुहाती है
कुछ मेरी जिंदगी
इन्हीं फटे पन्नों सी
नज़र आती है

Tuesday 7 March 2017

एक जहां ऐसा हो

वह जगह मौजूद है क्या कहीं
जहां ठहराव हो कुछ क्षण के लिए
मुश्किलों पर विराम हो
महसूस होता है अब!
कि धक्का खाती फिरती हूँ खामोशी के साये में कहीं
रोज़ धोखे के अक्षरों की पैठ मजबूत होती है
पल पल यहां
ना जाने क्यूँ कभी कभी ये
मासूमियत और भोलेपन को देखकर ऊब सी लगती है
इन सबके प्रति बड़ी नीरसता सी महसूस होती
है कोई बोझ
जो आत्मा को निरंतर नकारात्मकता की खाई में धकेलने की कोशिश करता है
लगता है अब
ये दोगली बातें
बनावटी बंदिशें
तर्क कुतर्क की महामारी
नष्ट हो जाए
बस अपनी कल्पनाओं का इक जहां वास्तविकता में ऐसा हो
जिसमें हो सिर्फ़ निःस्वार्थ प्रेम

अंतरद्वंद

कोई अंर्तद्वंद
चलता है निरंतर
अंतर्मन में
शायद है कोई ऐसी टीस
जिसकी कुलबुलाहट
ज़मी के दरीचों में अक्सर सिसकती है
कितनी ही बार दरीचों को
कुदेरा है मैंने
कभी
खामोशी की सिलवटों को ओढ़कर
कभी खुद को दोषी बनाकर

हमारा-तुम्हारा क्या रब्त

मैं सिर्फ़
इक अंधेरा हूँ
रात का अँधेरा
जो मौजूद रहता है अक्सर
तुम्हारी तन्हाई में
मायूसी में
और अकेलेपन में
अँधेरे (मेरी) की आहें
सिसकती है हर रोज़
पर ये आहें तुम्हें सुनाई नहीं देती
क्योंकि तुम ठहरे दिन के उजियारे
और उजियारे अँधेरे का
आखिर क्या रब्त़