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Thursday 6 April 2017

उम्र भर का फलसफा

हां
तुम मेरी आदत में शुमार
तुम्हीं सुबह और तुम्हीं शाम हो
फिर
तुमसे हिचकिचाहट कैसी
और कुछ भी बोलने में शर्म कैसी
मैं बादल की संज्ञा देकर
तुम्हें खुद से दूर नहीं करना चाहती
और ना ही
खुद धरा बनकर दूर रहना चाहती
ना ही तुम मेरी किताब का कोई हसीं पन्ना हो जो पलट जाए
तुम मेरे जीवन का संपूर्ण अध्याय हो
और ये अध्याय तो ज़िंदगी भर
चलता रहता है
इसकी उम्र तो सिर्फ़ मौत पर ही
खत्म़ होती है

दर्द

ठगा सा महसूस करती हूँ
खुद में कहीं
अजीब सी चुभन रहती है
कहीं मेरे अंदर
मानों चल रहा हो कोई अंतर्द्वंद
बहुत चोटे आई है
जिनके घाव
दिखते नहीं पर दर्द ज़रूर देते है
जिंदगी की खूबसूरती कब सियह
बन गई पता ही नहीं चला
दिल के रिश्तों को सिया था कभी
उनको उधेड़ कर तुमने
अरबाबे-जफ़ा ज़ाहिद का फर्ज़ अदा किया है
(अरबाबे-ज़फा-कष्ट देने वाला)